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गणेश परमार
गोयली-होली का त्यौहार परंपरागत रूप से मनाया जाता है
गोयली| होली का त्यौहार परंपरागत रूप से मनाया जाता है। होली के आने के एक पखवाड़े के पूर्व जिसके घर में बच्चा-बच्ची हुआ हैं जिसकी पहली होली होती हैं उनके घर पर ढूंढो उत्सव मनाया जाता हैं जिसको लेकर उनके घरो पर जाकर महिलाएं फागोत्सव गीतों की आवाजें शुरू हो जाती है। साथ ही रोजगार के लिए अन्य क्षेत्रों में पलायन हुए लोग घर को लौटने लगते है। गांव गोयली में होली का विशेष महत्व है। होली पर नवजात शिशु की ढूंढ की परंपरा आज भी बरकरार है।
नवजात शिशु के घर गुड़ और मिठाई लाई जाती है गांव में होलिका दहन होने के दूसरे दिन धूलंडी शाम को ही उसके चारों ओर नवजात शिशु को पकड़कर उसके माता-पिता साथ में सात चक्कर लगाते है। उस दिन गांव के सभी ग्रामीणजन इकट्ठे होकर चौराहे पर ढोल बजाते हुए खुशी का इजहार करते है, सभी एक-दूसरे के गले मिलकर रंग डालते हुए होली की शुभकामनाएं देते है। जिसके घर नवजात शिशु का जन्म हुआ है उस घर वाले नारियल एवं गुड़ लाकर देते है। जिसे सामूहिक रूप से सभी खाते है। दूसरे दिन धुलंड़ी का पर्व मनाया जात है। जिसमें एक-दूसरे के ऊपर रंग डालकर खुशी मनाते है। उस दिन ढ़ोली गांव के प्रत्येक घर जाकर ढ़ोल-थाली बजाकर खुशी का संदेश दिया जाता हैं।
वहीं गांव के लोगों द्वारा ढोल बजाते हुए गली-मौहल्लों में घर-घर जाकर रंग डालकर धुलंडी खेलते है।
गांव में गैर खेलने की परंपरा भी बनी हुई है। जिसमें ग्रामीणजन नवजात शिशु के घर पुरूष एवं महिलाएं युवतियां नाचती हुए खुशी का इजहार करती है। उस दिन भी लोगों को मिठाई, नारियल एवं गुड़ खिलाया जाता है।


