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मंडार-रमजान का पहला अशरा रहमत मंगलवार को 10वें रोजे के साथ खत्म हुआ। रोजेदारों ने दस दिनों में इबादत, कुरान पाक की तिलावत के साथ दुआओं में समय बिताया। रोज की तरह तरावीह की नमाज अदा की। गरीबों की मदद कर अल्लाह की दया पाने की कोशिश की। अब दूसरा अशरा मगफिरत बुधवार से 11वें रोजे के साथ शुरू हुआ है। मसजिद ए इरम के पेश इमाम सिद्दीकी अकबरी ने बताया कि रमजान में रोजेदार अपने गुनाहों की तौबा करते हैं। अल्लाह से माफी मांगते हैं। इस दौर में की गई इबादत और सच्चे दिल से मांगी गई दुआओं को अल्लाह कबूल करता है। रोजा आत्मसंयम, भक्ति और आत्मशुद्धि का माध्यम है। यह समाज में समानता की भावना पैदा करता है। अमीर और गरीब दोनों दिनभर भूख-प्यास रहते हैं ओर शाम होने पर रोजा इफ्तार करते हैं। नमाज, तिलावत और इबादत से इंसान अपने गुनाहों की माफी मांगता है। आध्यात्मिक रूप से खुद को मजबूत करता है।
रोजा इंसान को कराता है गरीबी का एहसास : पीर सैयद हसन अली बावा डीसा ने बताया कि दूसरे अशरे में रोजेदार अल्लाह से माफी मांगते हैं। अपनी गलतियों के लिए सच्चे दिल से दुआ करते हैं। गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करते हैं। कुरआन की तिलावत करते हैं। इबादत में अधिक समय देते हैं। रमजान आत्मशुद्धि का दौर होता है। इसमें इंसान अल्लाह के सामने अपनी गलतियों को स्वीकार करता है। उनसे बचने का संकल्प लेता है। माना जाता है कि जो व्यक्ति सच्चे दिल से तौबा करता है, उसके पिछले सभी गुनाह माफ हो जाते हैं। मास्टर अशरफ असगरी ने बताया की रोजा सहानुभूति और एकजुटता को बढ़ावा देता है। रोजे के दौरान गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करना, इफ्तार कराना इस्लाम की एक महत्वपूर्ण परंपरा है। रोजा आत्मशुद्धि का साधन है। इंसान अपनी आत्मा को सांसारिक लालसा से मुक्त कर अल्लाह की ओर अधिक झुकाव महसूस करता है। यह महीना आध्यात्मिकता, अनुशासन और एकता को बढ़ावा देता है। कहा जाता है कि रमजान के दौरान रोजे रखने से शरीर और आत्मा दोनों शुद्ध होते हैं।


